कलकत्ता आये हुए डेढ़ महीना हो गया। आज उसके ब्रह्म प्रसन्न हुए। रात के ग्यारह बज गये थे, हताश मन से वह घर लौट रही थी। इतने मे ही देखा, रास्ते के एक ओर दरवाजे के सामने एक आदमी आप-ही-आप कुछ बड़बड़ा रहा है। इस कंठ-स्वर से वह भली-भांति परिचित थी। करोड़ो लोगो के बीच मे भी वह उस स्वर को पहचान सकती थी। उस स्थान पर कुछ अन्धकार था, वही पर कोई मनुष्य नशे मे चूर पड़ा हुआ था। चन्द्रमुखी ने पास जाकर शरीर पर हाथ रखकर पूछा-‘तुम कौन हो, जो यहां पर इस तरह पड़े हो?’
उस मनुष्य ने जोर से कहा-‘सुनो तो सही मेरे मन की बाते, यदि पाऊं मै अपने स्वामी को।’
चन्द्रमुखी को अब और कुछ सन्देह नही रहा, उसने पुकारा-‘देवदास!’
देवदास ने उसी भांति कहा-‘हूं?’
‘यहां क्यो पड़े हो, घर चलोगे?’
‘नही, अच्छी तरह हूं।’
‘थोड़ी शराब पियोगे?’
‘हां पिऊंगा’-कहकर एकाएक चन्द्रमुखी का गला जकड़ लिया, कहा-‘ऐसी भलाई करने वाले तुम कौन हो भाई?’
चन्द्रमुखी की आंखो से आंसू गिरने लगे। बड़े परिश्रम के साथ गिरते-पड़ते चन्द्रमुखी के कन्धे का सहारा लेकर उठे। कुछ देर मुख की ओर देखने के बाद कहा-‘भाई यह बड़ी अच्छी चीज है।’
चन्द्रमुखी ने आह भरी हंसी हंसकर कहा-‘हां, बड़ी अच्छी चीज है। जरा मेरे कन्धे का सहारा लेकर कुछ आगे चलो, एक गाड़ी ठीक करनी होगी।’
‘गाड़ी क्या होगी?’-रास्ते मे आते-आते देवदास ने बैठे हुए गले से कहा-‘सुन्दरी, तुम मुझे पहचानती हो?’
चन्द्रमुखी ने कहा-‘पहचानती हूं।’
देवदास ने हकलाते हुए कहा-‘और लोगो ने तो मुझे भुला दिया है, भाग्य है जो तुम पहचानती हो।’
फिर गाड़ी पर सवार होकर, चन्द्रमुखी के शरीर पर बोझ दिये ही घर पर आये। दरवाजे के पास खड़े होकर जेब मे हाथ डालकर कहा-‘सुन्दरी; गाड़ी तो ले आयी, किन्तु जेब मे कुछ नही है।’
चन्द्रमुखी ने कोई उत्तर नही दिया। चुपचाप हाथ पकड़े हुए ऊपर लाकर लिटाकर कहा-‘सो जाओ।’
देवदास ने उसी भांति बैठे हुए गले से कहा-‘क्या कुछ चाहिए नही?
मैने जो कहा कि जेब खाली, कुछ मिलने की आशा नही है। समझी सुन्दरी?’
सुन्दरी उसे समझ गयी, कहा-‘कल देना।’
देवदास ने कहा-‘इतना विश्वास तो ठीक नही। क्या चाहिए, खुलकर कहो?’
चन्द्रमुखी ने कहा-‘कल सुनना।’-यह कहकर वह बगले के दूसरे कमरे मे चली गयी।
देवदास की जब नीद टूटी तो दिन चढ़ गया था। घर मे कोई नही था। चन्द्रमुखी स्नान करके भोजन पकाने की तैयारी मे थी। देवदास ने चारो और आश्चर्य से देखा कि इस स्थान मे वे कभी नही आये थे, एक चीज भी नही पहचान सके। पिछली रात की एक बात भी याद नही आती थी; केवल किसी की आन्तरिक सेवा का कुछ-कुछ स्मरण आता था। किसी ने मानो बड़े स्नेह के साथ लाकर सुला दिया।
इसी समय चन्द्रमुखी ने घर मे प्रवेश किया। रात की सज-धज मे इस समय बहुत कुछ परिवर्तन हो गया था। शरीर पर गहने तो अब भी वे ही थे। किन्तु रंगीन साड़ी, माथे का टीका, मुख मे पान का दाग आदि कुछ भी नही थे। केवल एक धोई हुई श्वेत साड़ी पहने हुए वह घर मे आयी। देवदास चन्द्रमुखी को देखकर खिल उठे, बोले-‘कहां से कल मुझे यहां बुला ले आयी?’
चन्द्रमुखी ने कहा-‘बुला नही लायी, रास्ते मे तुम्हे पड़ा हुआ देखकर उठा ले आयी।’
देवदास ने कुछ गम्भीर होकर कहा-‘अच्छा, यह तो हुआ सो हुआ, पर तुम्हे यहां कैसे पाता हूं? तुम कब आयी? तुम तो गहना नही पहनती थी, फिर कैसे पहनने लगी?’
चन्द्रमुखी ने देवदास के मुख पर एक तीव्र दृष्टि डालकर कहा-‘फिर से...!’
देवदास ने हंसकर कहा-‘नही-नही, यह हो नही सकता; ऐसी हंसी करने मे भी दोष है। आयी कब?’
चन्द्रमुखी ने कहा-‘डेढ़ महीना हुआ।’
देवदास ने मन-ही-मन कुछ हिसाब लगाया, फिर कहा-‘मेरे मकान से लौटने के बाद ही यहां पर आयी?’
चन्द्रमुखी ने विस्मित होकर कहा-‘तुम्हारे घर पर मेरे जाने की खबर तुम्हे कैसे मिली?’
देवदास ने कहा-‘तुम्हारे लौटने के बाद ही मै मकान पर गया था। एक दासी से, जो तुम्हे बड़ी बहू के पास ले गयी थी, सुनने मे आया कि कल अशथझूरी गांव से एक बड़ी सुन्दर स्त्री आयी थी। फिर समझना कितना कठिन था? किन्तु इतना गहना कहां से गढ़ाया?’
चन्द्रमुखी ने कहा-‘गढ़ाया नही; ये सब गिलट के गहने है, इन्हे कलकत्ता मे आकर खरीदा है।
तुम्हे देखने के लिए मैने कितना फिजूल खर्च किया है, और कल तो तुम मुझे पहचान भी नही सके।’
देवदास ने हंसकर कहा-‘एकबारगी नही पहचान सका, कोशिश करने पर पहचाना था। कई बार मन मे आया कि चन्द्रमुखी को छोड़कर मेरी ऐसी सेवा कौन करेगा?’
मारे हर्ष के चन्द्रमुखी को रोने की इच्छा हुई। कुछ देर तक चुप हो रहने के बाद कहा-‘देवदास, मुझसे अब वैसी घृणा करते हो या नही?’
देवदास ने जवाब दिया-‘नही, वरन् प्रेम करता हूं।’
दोपहर मे स्नान करने के समय चन्द्रमुखी ने देखा कि देवदास की छाती मे एक फलालेन का टुकड़ा बंधा है। भयभीत होकर पूछा-‘यह क्या फलालेन क्यो बांधा है?’
देवदास ने कहा-‘छाती मे एक प्रकार की पीड़ा होती है, तुम तो सुख से हो?’
चन्द्रमुखी ने सिर धुनकर कहा-‘सर्वनाश करना चाहते हो क्या? फेफड़े मे पीड़ा है?’
देवदास ने हंसकर कहा-चन्द्रमुखी ऐसा ही कुछ है। उसी दिन डॉक्टर ने आकर बहुत देर तक परीक्षा करने के बाद यही आशंका स्थिर की। औषध लिख दी तथा बताया कि यदि विशेष सावधानीपूर्वक न रहा जायेगा तो भारी अनिष्ट होने की सम्भावना है। दोनो ही ने इसका तात्पर्य समझा। पत्र द्वारा घर से धर्मदास को बुलाया गया और चिकित्सा के लिए बैक से रुपया आया। दो दिन इसी भांति बीत गये, किन्तु तीसरे दिन ज्वर का आविर्भाव हुआ।’
देवदास ने चन्द्रमुखी को बुलाकर कहा-‘बड़े अच्छे समय से आयी, नही तो मुझे यहां कौन देखता?’
आंसू पोछकर चन्द्रमुखी प्राणपण से सेवा करने बैठी। दोनो हाथ जोड़कर प्रार्थना की-‘भगवान्, ऐसे असमय मे इतना काम आ पड़ेगा, यह स्वह्रश्वन मे भी आशा नही थी। किन्तु देवदास को शीघ्र अच्छा कर दो!’
प्रायः एक मास से ऊपर अधिक देवदास चारपाई पर पड़े रहे, फिर धीरे-धीरे आरोग्य होने लगे। रोग अधिक बढ़ने नही पाया।
इसी समय एक दिन देवदास ने कहा-‘चन्द्रमुखी, तुम्हारा नाम बहुत बड़ा है। पुकारने मे कुछ असुविधा-सी होती है, इसे थोड़ा छोटा कर देना चाहता हूं।’
चन्द्रमुखी ने कहा-‘अच्छी बात है।’
देवदास ने कहा-‘आज से तुम्हे ‘बहू’ कह के पुकारूंगा।’
चन्द्रमुखी हंस पड़ी, कहा-‘इसे पुकारने का कोई मतलब भी होना चाहिए।’
‘क्या सभी बातो का मतलब हुआ करता है? मेरी इच्छा।’
‘यदि इच्छा ही है तो कहो। किन्तु यह इच्छा कैसी, यह तो कहो!’
‘नही, कारण मत पूछो।’
चन्द्रमुखी ने सिर नीचा करके कहा-‘अच्छी बात है, यही सही।’
देवदास ने बहुत देर तक चुप रहने के बाद हठात् गम्भीर भाव से पूछा-‘अच्छा बहू, तुम मेरी कौन हो, जो इतने प्राणपण से मेरी सेवा करती हो?’
चन्द्रमुखी न तो लज्जाशील वधू ही है और न बातचीत मे अनभ्यस्त बालिका; देवदास के मुख की ओर स्थिर-शान्त दृष्टि रखकर स्नेह-जड़ित कंठ से कहा-‘तुम मेरे सर्वस्व हो, क्या यह अब भी नही समझ सके?’
देवदास दीवाल की ओर देख रहे थे। उसी ओर देखते हुए धीरे-धीरे कहा-‘यह सब समझता हूं, किन्तु इससे आनन्द नही मिलता। पार्वती को मै कितना ह्रश्वयार करता था और वह भी मुझे कितना ह्रश्वयार करती थी, पर इससे अन्त मे मिला कष्ट ही। बहुत दुख पाने पर सोचा था कि अब कभी प्रेम के फंदे मे पांव नही दूंगा। जानते हुए दिया भी नही। परन्तु तुमने यह क्या किया? जोर देकर फिर उसमे मुझे क्यो फंसाया?-यह कहकर कुछ क्षण चुप रहने के बाद फिर कहा-‘बहू, जान पड़ता है, तुम भी पार्वती की भांति दुख उठाओगी।’
चन्द्रमुखी मुख पर आंचल देकर चारपाई के एक ओर चुपचाप बैठी रही।
देवदास ने फिर मृदु-कंठ से कहना आरम्भ किया-‘तुम दोनो मे कितनी विषमता है। एक कितनी अभिमानिनी और उद्धत है और दूसरी कितनी शांत और कितनी संयम है। वह कुछ भी नही सह सकती और तुम कितना सहती हो! उसका कितना यश और कितना नाम है और तुम कितनी कलंकिता हो!
सभी उसे ह्रश्वयार करते है, पर तुम्हे कोई ह्रश्वयार नही करता! फिर मै ह्रश्वयार करता हूं-‘कैसे करता हूं!’-
कहकर एक दीर्घ निःश्वास फेककर फिर कहा-‘पाप-पुण्य के विचारकर्ता तुम्हारा कैसा विचार करेगे, यह नही कह सकता, पर मृत्यु के बाद यदि मिलन होगा तो मै तुमसे कभी दूर नही रहूंगा।’
चन्द्रमुखी भीतर-ही-भीतर रो पड़ी, दिल बड़ा छोटा हो गया, मन-ही-मन प्रार्थना करने लगी‘भगवान! किसी काल या किसी जन्म मे अगर इस पापिष्ठा का प्रायश्चित हो जाय तो मुझे इन्हे ही पुरस्कार मे देना!